२९ मंसिर २०८२, आईतवार

अब भी जलता शहर बचाया जा सकता है ( साहित्य ) अन्सारी

एसीपी संवाददाता

२५ मंसिर २०८२, बुधबार २१:१३ मा प्रकाशित

अब भी जलता शहर बचाया जा सकता है,
अगर इन्सान से इन्सान मिलाया जा सकता है।

नफ़रतों की धूप में झुलसी हैं सदियाँ सारी,
प्यार का एक बादल लाया जा सकता है।

सच की आवाज़ आज भी ज़िंदा है सीने में,
ख़ौफ़ की दीवार को ढहाया जा सकता है।

ख़ून से लिखी हुई तारीख़ें मिट सकती हैं,
क़लम से नया मुक़द्दर बनाया जा सकता है।

थक गए हैं लोग तमा्शा देखते-देखते,
एक साजिश को भी सादगी से हराया जा सकता है।

मत कहो कि अब अंधेरों का ज़माना है,
एक दिया फिर भी जलाया जा सकता है।

अब भी जलता शहर बचाया जा सकता है,
नुर अगर चाहे तो दीप जलाया जा सकता है।

नफ़रत की इस धूप में जलते रहे जो लोग,
इश्क़ का साया उन्हें दिखाया जा सकता है।

चीख़ों से बोझिल हुई हैं गलियाँ सारी,
ख़ामोशी से भी शोर मचाया जा सकता है।

सच अब भी शर्मिंदा नहीं हुआ दुनिया में,
झूठ के चेहरे से नक़ाब हटाया जा सकता है।

टूटे हौसले जोड़ने आते हैं कुछ लम्हे,
एक वक़्त को फिर से सजाया जा सकता है।

मत कहो कि अब कोई राह बाक़ी नहीं,
नूर से अंधेरा भी हराया जा सकता है।

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